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तेज पुंज मुख से उच्चारीत हुआ रहस्यमयी उपनिषद

रहस्यों की दुनिया में आपका स्वागत है।यहाँ  आपको ऐसे ऐसे  रहष्यो के बारे में जानने को मिलेगा जिसको  आप ने  कभी सपने में  भी नहीं सोचा होगा। 

दुर्लभोपनिषद समस्त उपनिषद में अद्वितीय और श्रेष्ठ है।ऋषियों ने इस बात को स्वीकार किया है कि जहां दुर्लभोपनिषद की चर्चा होती है वहां पवित्रता का वातावरण बन जाता है।जहां दुर्लभोपनिषद के श्लोकों का उच्चारण होता है वहां जीवन में आनन्द, प्रसज्ञता, आहलाद और खुशी छलकने लग जाती है। जो दुर्लभोपनिषद के पदों को गेय अवस्था में गाता है, सुनता है, मनन करता है, चिन्तन करता है वह स्वत: साधक बन जाता है, समस्त सिद्धियां स्वत: उसके सामने उपस्थित हो जाती हैं। उसको साधना करने की विशेष आवश्यकता नहीं होती क्योंकि ये श्लोक अपने आप में दिव्य और चैतन्य हैं इन श्लोकों की रचना ही इस प्रकार हुई है कि सुनने वाले की चेतना पर, देह पर, आत्मा पर प्रहार करती है और उसके सारे शरीर को साधनामय बना देती है।इसलिए शास्त्रकारों ने कहा है कि वास्तव में ही वे बहुत सौभाग्यशाली व्यक्ति होते हैं जिनके घर में दुर्लभोपनिषद होता है, वास्तव में ही पुण्योदय होते हैं, जब दुर्लभोपनिषद की चर्चा करते हैं। वास्तव में पूर्वजों का पुण्य जीवन में अवतरित होता है जब दुर्लभोपनिषद के शब्दों को व्यक्ति उच्चारित करता है और वास्तव में जब उसका अच्छा समय, उसका सौभाग्य प्रारम्भ होता है तब व्यक्ति के जीवन में ये श्लोक उच्चारित होते हैं और वह उन्हें सुनता है। दुलभोपनिषद के प्रारम्भ में ऋषि ने आत्म वाक्य में स्पष्ट किया हैकि साधना और सिद्धियां तो स्वत: प्राप्त हो जाती हैं। साधनाओं को करने के लिए कोई विशेष प्रयत्न की आवश्यकता नहीं है यदि व्यक्ति ने दुर्लभोपनिषद को पढ़ा है, उच्चारित किया हो या श्रवण किया हो और जो निरन्तर 108 दिनों तक दुर्लभोपनिषद की चर्चा करता है या सुनता है उसको प्रत्येक प्रकार की सिद्धि अपने आप प्राप्त हो जाती है बह चाहे महाकाली साधना हो या महालक्ष्मी हो, मैरब हो, यक्ष हो, गंधर्व हो या किसी प्रकार की साधना हो या सिद्धि हो।वास्तव में यह एक अद्वितीय और दुर्लभ उपनिषद है जिसको मैं स्पष्ट कर रहा हूँ। इसके कुछ महत्वपूर्ण श्लोकों को आपके सामने रख रहा हूँ।

दुर्लभोपनिषद आपके घर में हो यह सौभाग्य की बात है। मगर दुर्लभोपनिषद के प्रारम्भ में कहा गया है कि गुरू मुख से उच्चारित दुर्लभोषनिषद ही घर में हो, क्योंकि गुरू ने बोला और आपके घर में गुंजरित डुआ तो सीधा संबंध गुरूसे बना। इसका तात्पर्य है कि गुरू स्वयं आपके घर में अवतरित हुए आपके घर में आए। आपने उनकी वाणी से इसके अलोकों को सुना यह जीवन का सौभाग्य है। यही जीवन की श्रेष्ठता कही जाती है।और मेरे जीवन का यह अनुभव रहा है कि दुर्लभोपनिषद सुनने से, सुनने मात्र से आधी से ज्यादा सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं। इसलिए प्रत्येक ब्रत, साधना, पूजन, अर्चना से पहले इसके श्लोकों को अवश्य सुनना चाहिए, उच्चारित करना चाहिए और पूरे वातावरण को पविन्न और दिव्य बनाना चाहिए क्योंकि दुर्लभोपनिषद की चर्चा होने से या उच्चारण होने से समस्त देवता घर में आते ही हैं। समस्त ऋषि घर में पदार्पण करते हैं, उन ऋषियों का आशीर्वाद प्राप्त होता है, उन देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त होता है।



जहां दुर्लभोपनिषद है वहां समस्त देवता हैं, समस्त सिद्धियां हैं, पूर्णता है, श्रेष्ठता है। इसलिए यह उपनिषद अपने आप में गोपनीय रहा, इसलिए यह कम लोगों को ज्ञात हो सका। वशिष्ठ ने स्वयं कहा कि दुर्लभोपनिषद जैसा ग्रंथ और श्लोक तो अपने आप में बन ही नहीं सकते। विश्वामित्र ने कहा कि मेरी समस्त साधनाओं का सार दुर्लभोपनिषद है। शंकराचार्य ने कहा कि मैं जो कुछ हूँ, उसका आधार दुर्लभोपनिषद हैं। इसका तात्पर्य है कि दुर्लभोपनिषद वास्तव में ही अद्भुत कृति है। किसी एक ऋषि ने दुर्लभोषनिषद के श्छोकों की रचना नहीं की। समस्त ऋषियों के शरीर से निकले तेज पुंज ने एक आकार ग्रहण किया, एक ब्रह्मत्व ग्रहण किया और उसके मुख से उन श्छोकों को उच्चारण हुआ।जिस प्रकार से समस्त देवताओं के शरीर से जो तेज पुंज निकला बह भगवती जगदम्बा बनी, ठीक उसी प्रकार से ऋषियों और गुरूओं के शरीर से जो तेज पुंज के माध्यम से ब्रह्म तत्व प्रकट हुआ और उसके मुख से ये श्लोकmउच्चारित हुए। इसलिए दुर्लभोपनिषद की महिमा अपने आप में अद्वितीय है।


दुर्लभोपनिषद अपने आप में गुरू चितंन है, गुरू मनन है। जहां गुरू शब्द का उच्चारण करते हैं वहाँ समस्त तीर्थों के नाम का उच्चारण करते हैं। जहां गुरू शब्द उच्चारित होता है वहाँ समस्त देवताओं का उच्चारण होता है। जहां गुरू बोला वहाँ ब्रह्मा, विष्णु और महेश स्वयं अवतरित होते ही हैं क्योंकि गुरू शब्द अपने आप में इतना नगण्य, ओछा और तुच्छ शब्द नहीं है, यदि हम इसकी गरिमा समझें इसकी महत्ता समझे, यवि इसका मूल्य आंके तो यह शब्द दिव्य, पवित्र और उच्च कोटि का है। दुर्लभोपनिषद में गुरू से संबंधित उन पदों की कल्पना की गई है जो पद अपने आप में अद्वितीय है। कुछ पद इस प्रकार के होते हैं कि उनके उच्चारण मात्र से देवता प्रकट हो जाते हैं। ये श्लोक ऐसे ही हैं कि इनके उच्चारण मात्र से देवता प्रकट होते ही हैं, दृश्य रूप में अदृश्य रूप में। समस्त ऋषि, यक्ष, गंधर्व उसके सामने खड़े होते हैं हाथ बांधकर, क्योंकि वहां पर दुर्लभोपनिषद का उच्चारण होता है या सुना जाता है। जहाँ ऐसा होता है उसके समान तो देवताओं का स्वर्ग भी नहीं होता, इन्द्र की पुरी भी उसके सामने नगण्य और तुच्छ मानी जाती है क्योंकि वहां पर गुरू चर्चा होती है, गुरू का चिंतन होता है, गुरू के हृदय की भाव भूमि स्पष्ट होती है और हम उन तत्वों को रचनाओं को स्पष्ट करते हैं जिनके माध्यम से गुरू पद विन्यास को समझ सके, गुरू के चिंतन को समझ सके। क्योंकि यह ग्रंथ समस्त ऋषियों और देवताओं के शरीर के तपोपुंज का समग्र स्वरूप है इसलिए यह दुर्लभोपनिषद इतना सामान्य नहीं हैं यह किसी मनुष्य या देवता या एक ऋषि का बनाया हुआ नहीं है, यह तो अपने आप में एक अद्वितीय चिंतन डै, अद्वितीय भाव भूमि है।


मैं पहली बार उन दिव्य श्लोकों का उच्चारण कर रहा हूँ जिससे कि आपका जीवन पवित्र हो सके , आप सही अर्थो में साधक बन सकें, पूर्णता प्राप्त कर सकें, आपके घर में पवित्रता का वातावरण बन सके, सुख सौभाग्य आ सके।आपके जीवन की दरिद्रता मिट सके, कष्ट और अभाव दूर हो सकें, आपके परिवार में एक श्रेष्ठ वातावरण बन सके और देवताओं का निवास बन सके समस्त ऋषि आकर आपको आशीर्बाद दे सके और आपके घर में दुःख, संताप, चिन्ताएं र हो सकें, आप जीवन में वह सब प्राप्त कर सकें जो आपके जीवन का लक्ष्य है जो आपके जीवन का ध्येय है, जीवन का उद्देश्य है। ञौ र आप जब इन श्लोकों को सुनें या पढ़ें या उच्चारण करें तब अत्यन्त पवित्र भाव मन में ला करके अपने सामने प्रत्यक्ष या चित्र में गुरू के दर्शन करके, उनकी पूजा अर्चना करके, उनके प्रति प्रणम्य हो करके, साष्टांग प्रणाम करके, अपने आपको गुरू के हृदय से जोड़ करके इन श्छोकों को सुने या उच्चारण करें। इन समस्त वातावरण में इन श्लोकों का गुंजरण करें, आपकी पत्नी, पुत्र, पुत्रियों एवं भी जे घर के सदस्यों के साथ सुनें जिससे उनका जीवन भौतिकता से कट करके पवित्र दिव्य, ॥ चेतनावान, सुसंस्कारित बन सके। बच्चों में अच्छे.संस्कार आ सकें, बड़ों के प्रति आदर सत्कार उनके हृदय में ॥ आ सके। उनके घर में देवता खेल सकें, गणपति, शिव, ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, मरूदगण सभी उनके घर में स्थायी निवास कर सके और अटूट लक्ष्मी का निवास उनके घर में हो सके। इसलिए तो इसको जीवन का श्रेष्ठटस उपनिषद माना गया डै। इसीलिए तो ए ऋषियों ने एक स्वर में स्वीकार किया है कि यह मनुष्यों के द्वारा उच्चारित उपनिषद नहीं है यह तो समस्त योगियों का तपोपुंज स्वरूप हैं उन्हीं श्लोकों को मैं उच्चारित कर रहा हूँ।

गुरुर्वै सदां पूर्ण मदैव तुल्यं प्राणो वदार्यै वहितं सदैव। चिन्त्यं विचिन्त्यं भव मेक रुपं गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं ।।


गुरुर्वै प्रपन्नार्तवैवां वदैवं अत्योर्वतां वै प्रहितं सदैव। देवोत्वमेव भवतं सहि चिन्त्य रुपं गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।


सतं वै सदानं देवालयोवै प्रातोर्भवेवै सहितं न दिर्घयै। पूर्णतंपरांपूर्ण मदैव रुपं गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।


अदोयं वदेवं चिन्त्यं (सहेतं) पुर्वोत्त रुपं चरणं सदैयं। आत्मो सतां पूर्ण मदैव चिन्त्यं गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।


चैतन्य रुपं अपरं सदैव प्राणोदवेवं चरणं सदैव। सतीर्थो सदैवं भवतं वदैवं गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।


चैतन्य रुपं भवतं सदैव, ज्ञानोच्छवासं सहितं तदैव। देवोत्त्थां पूर्ण मदैव शक्तीं, गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।


न तातो वतान्यै न मातं न भ्रातं न देहो वदान्यै पत्निर्वतेवं। न जानामी वित्तं न वृत्ति न रुपं गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।


त्वदियं त्वदेयं भवत्वं भवेयं, चिन्त्यंविचिन्त्यं सहितं सदैव। आर्तोनवातं भवमेक नित्यं, गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।


अवतं सदेवं भवतं सदैवं, ज्ञानं सदेवं चिन्त्यं सदैवं। पूर्णं सदैवं अवतं सदैवं, गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।

डिसक्लेमर

'इस लेख में दी गई जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं है। सूचना के विभिन्न माध्यमों/ज्योतिषियों/पंचांग/प्रवचनों/धार्मिक मान्यताओं/धर्मग्रंथों से संकलित करके यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है.सिर्फ काल्पनिक कहानी समझ कर ही पढ़े .

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